1.25 Crore Hanuman Chalisa Anushtan

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आत्मा और शरीर का बोध

A potter shaping clay on a spinning wheel, symbolizing the continuous cycle of creation and transformation.

जैसे कुम्हार का चाक होता है जिसे वह खूब जोरों से चलाता है और फिर मिट्टी से आकृति बनाता है। यदि वह चाक चलाना छोड़ दे या उसमें वेग देना छोड़ दे तो बहुत देर चलते-चलते वह चाक फिर अपने आप रुक जाएगा। उस

जैसे साइकिल में पैडल दे रहे हैं तभी तो चल रही है। पैडल मारना छोड़ दें तो कितना चलेगी? कहीं तो जाकर रुक जाएगी। चाक कहीं तो रुकेगा। ऐसे ही मैं शरीर हूं ऐसा मान करके आप कर्म करे चले जा रहे हैं। तो कर्म करने के लिए फिर एक नया शरीर आएगा। वहां कर्म करेंगे और फिर उस कर्म के फल को भोगने के लिए नवीन में शरीर लेंगे। यह चक्र चलता ही रहता है । किंतु जब आप मैं शरीर नहीं हूं, मैं आत्मा हूं, इसको धारण करते हैं और मैं करता भी नहीं हूं फिर आपने इसमें पैडल मारना छोड़ दिया। अब धीरे-धीरे शरीर की गति जिस वेग से चल रही है वह शीतल हो जाएगी।

इसी कारण से शरीर को अनादी शांत कहते हैं। यह एक दिन शांत हो जाएगा। अभी शांत होना शांत नहीं कहा जाएगा। हम कहते हैं कि वह व्यक्ति मर गया मतलब उसका शरीर शांत हो गया। लेकिन वह शांत नहीं हुआ है ।वह तो कहीं और नवीन शरीर ले चुका है। शांत उसको कहा जाता है जो दोबारा प्रकट न हो। यह‌ तब होगा जब वापस शरीर को छोड़ देंगे। अभी तो शरीर आपको छोड़ता है। आप कहां शरीर को छोड़ते हैं। पर साधु संत शरीर को छोड़ देते हैं। भक्त शरीर को छोड़ देते हैं। तो शरीर अपने आप शांत हो जाता है। फिर पुन: प्रकट नहीं होता है। इसलिए इसको अनादी शांत कहा है ।अनादि है यह, इसके आदि,अंत,मध्य का पता नहीं लेकिन यह शांत हो सकता है। और आत्मा अनादि अनंत है। वह अनादी तो है लेकिन अनंत भी है। उदाहरण जैसे आकाश सर्वव्यापी है वैसे आत्मा भी सर्वव्यापी है। इसलिए वह अनंत है। तो एक अनादि शांत है तो दूसरा अनादि अनंत है। अर्थात इस आत्मा का भी कहा अनंत है ।यह पता नहीं कि इसके आदि ,मध्य और अंत कहां । इसलिए अनादि अनंत है।

यह शांत नहीं होता कैसे? जब आप यह कहते हैं कि मैं शरीर नहीं ,मैं आत्मा हूं ।तो शरीर तो शांत हो गया। पर जब आप अपने आप को आत्मा मानते हैं ,तो आप समझेंगे कि ये सब शरीर हैं। बुद्धि थोड़ी आगे बढ़ती है तो आपको लगता है कि मैं शरीर नहीं,मैं  इसमें रहने वाली जीवात्मा हूं। जैसे कोई मरता है तो कहते हैं इस व्यक्ति की आत्मा निकल गई। आत्मा शरीर छोड़कर निकल गई। जबकि आत्मा नहीं निकलती है। निकलता है सूक्ष्म शरीर।‌ जीवन पर्यंत जो कर्म किए जाते हैं वह कर्म इसी सूक्ष्म शरीर में संचित होते हैं। तो प्राण के साथ में और  कर्मों के साथ में वही सूक्ष्म शरीर निकलता है। और कुछ समय के बाद वह पुनः नवीन शरीर धारण कर लेता है। आत्मा नहीं निकला ,सूक्ष्म शरीर निकला है।

ध्यान से समझेंगे। पहले आप समझते हैं कि मैं शरीर हूं और दूसरा अब समझते हैं कि मैं शरीर में रहने वाली जीवात्मा हूं। अब तीसरी अवस्था में जब बुद्धि और साफ सुथरी हो जाती है तब आप समझते हैं ना तो मैं शरीर हूं ना उसमें रहने वाला सूक्ष्म शरीर हुं , बल्कि मैं आत्मा हूं और मुझ आत्मा में ही यह शरीर रहता है।स्थूल और सूक्ष्म दोनों शरीर मुझ में ही रहते हैं।

जैसे जल में मछलीयां रहती है,आकाश में बादल रहता है। आकाश में समस्त ग्रह उपग्रह रहते हैं। वैसे ही आत्मा में यह शरीर रहता है। फिर धीरे-धीरे और व्यापकता आती है कि आत्मा अजर है ,अमर है, शाश्वत है ,सनातन है ,अचिंत्य है ,अव्यय है, अविनाशी है, सर्वव्यापी है। यह बात समझ में आती है कि शरीर ही नहीं पूरा ब्रह्मांड आत्मा ही है।

जैसे जब आप सोते हैं तो आपके चित्त में पूरा स्वप्न जगत बसा हुआ है। आपके चित्त में ही स्वप्न प्रकट हुआ और स्वप्न में आकाश, वायु,पृथ्वी, समुद्र सब कुछ था। पूरा चित्त में ही वह स्वप्न विलीन हो जाता है।

वैसे ही आत्मा में ही पूरा ब्रह्मांड बसता है। तो आत्मा व्यापक हो गया। अनंत हो गया। इसलिए कहा गया कि शरीर अनादि शांत है और आत्मा अनादि अनंत है। क्योंकि वह और व्यापक हो जाता है ।अनंत हो जाता है। यद्यपि वह व्यापक तो है, अनंत तो है ही पर इसका बोध हो जाता है।

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